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भारत परिक्रमा- ग्यारहवां दिन- गुजरात

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18 अगस्त 2012
सुबह दो बजे सही समय पर ट्रेन राजकोट पहुंच गई। अहमदाबाद से जो बर्थ मेरी थी, राजकोट के बाद यही बर्थ किसी और की हो जायेगी। उसे राजकोट से ही इस ट्रेन में चढना है। कायदा यह बनता है कि राजकोट में ट्रेन रुकते ही उसे मुझे जगा कर डिब्बे से बाहर नहीं तो कम से कम बर्थ से नीचे तो उतार ही देना था। लेकिन मेरी बर्थ का उत्तराधिकारी नहीं आया और मैं सोता रह गया। अच्छा था कि अलार्म लगा लिया था, आंख खुल गई नहीं तो सोमनाथ महाराज ने बुलाने में कसर नहीं छोडी थी। यह सोमनाथ एक्सप्रेस थी जो वेरावल जाती है। वेरावल से चन्द किलोमीटर आगे ही सोमनाथ है। सुबह सात बजे ओखा पैसेंजर की बजाय सोमनाथ के दरबार में बैठा मिलता या नींद से झूलता मिलता।
सोमनाथ बाबा किसी को आमन्त्रित करने में बडा उस्ताद है। अपनी इसी आदत के चक्कर में हजार साल पहले गलत लोगों को आमन्त्रित कर बैठा और सत्रह बार लुटा। वाह जी वाह सोमनाथ!
खैर, अब वे लोग नहीं रहे जो आमन्त्रण पर तुरन्त दौडे चले जाते हैं। राजकोट में उतरना था और राजकोट में उतर भी गया। मेरे उतरते ही गाडी वेरावल के लिये चली गई। शरीर गर्म था और चक्कर भी आ रहे थे। कल का भयंकर बुखार अभी भी दम साधे पीछे पडा था। ससुरे ने यात्रा के अन्त समय की ऐसी तैसी कर दी। छह बजे उठने की उम्मीद करके बिना अलार्म लगाये वेटिंग रूम में पन्नी बिछाकर सो गया।
आंख भी खुली छह बजे। अच्छा खासा अन्धेरा था। भारत के इस पश्चिमी हिस्से में मामला बडा लेट शुरू होता है। सूरज लेट निकलेगा, लेट छिपेगा। अब तक असोम में सूरज सिर पर चढ आया होगा, गर्मी बरसाने लगा होगा, यहां दूर दूर तक अभी भी कोई चांस नहीं है। जितना पश्चिम में चलते जाओगे, सूरज उतना ही लेटलतीफ होता जायेगा।
सोचा कि अभी तो अन्धेरा है, सो जाता हूं। लेकिन नींद नहीं आई। अब सोचा कि टाइम ही देख लूं कि कितनी देर तक ऐसे ही पडे रहना पडेगा, लेकिन आलस ने कहा कि ना, छह बजे के आसपास देखूंगा। अभी तो चार ही बजे होंगे। लेकिन फिर भी मोबाइल हाथ की आसान पहुंच में था, देख ही लिया। देखा तो सवा छह। अरे तेरे की, बहुत टाइम हो गया। फटाफट उठा और सामान समेटकर टिकट ले आया ओखा तक का। अब बुखार उतारने का गर्मियों वाला नुस्खा इस्तेमाल करना भी जरूरी था- नहाने का नुस्खा। पन्द्रह मिनट तक लाइन में खडा रहा, तब नम्बर आया।
और जैसे ही पानी का पहला मग्गा सिर पर डाला तो पता चला कि बुखार तो है ही नहीं। बुखार में नहाते समय मुझे कुछ स्पेशल तरह की सुबकाई आती है, उससे अन्दाजा लग जाता है कि बुखार है या नहीं, अगर है तो तेज है या कम है। सुबकाई नहीं आई, यानी बुखार नहीं है। लेकिन कमजोरी इतनी आ गई थी कि लग रहा था कि बुखार अभी भी है। कल बडा भयंकर झटका लगा था बुखार का, उसकी वजह से कुछ खाया-पीया भी नहीं। ना खाने की वजह से कमजोरी आ गई और चक्कर आने लगे। जीभ की स्वाद ग्रन्थियां निष्क्रिय हो गईं, जिसकी वजह से हर चीज स्वादहीन लगने लगीं, यहां तक कि पानी भी। ना खाने का एक बहाना मिल गया।
अगर कभी ऐसा हो जाये तो हमारा कर्तव्य बनता है कि हिम्मत रखें। सोचें कि जो भी कुछ हो रहा है, हमारे साथ हो रहा है इसलिये इससे निपटना भी हमें ही है। किसी से हमदर्दी की आशा ना रखें। खाने का मन ना हो तो भी जबरदस्ती जरूर कुछ खायें। क्या खायें, इस बारे में डॉक्टर लोग बहुत कुछ लेक्चर दे देंगे लेकिन मेरी मानों तो एक मिनट तक आंख बन्द करके बैठ जाओ। सोचो कि इस हालत में आपका क्या खाने का मन कर रहा है? रोटी? ना। दाल? ना। चावल? ना। दूध? ना। अब दायरा बढाओ। मटर पनीर? ना। अण्डा? ना। परांठा? ना। अरे यार, सोचो ... जल्दी सोचो... कोई ना कोई ऐसी चीज तो मिलेगी जरूर... जलेबी? ना। रसगुल्ले? ना। लड्डू? ना। फलों पर पहुंचकर देख लो... आम? ना। केले?... अनार? ... सेव?... हां, सेव को मन कर रहा है। एक दो केले भी खा सकता हूं।
बस हो गया काम। खा डालो सेव और केले। अगर परांठे को मन कर रहा है तो बिना देर लगाये भरपेट परांठे खा लो। अक्सर तली हुई चीजों की मनाही की जाती है लेकिन जरुरत होती है अधिक से अधिक खाने की और मन करता नहीं है तो बीमारी और भूख से भयंकर कमजोरी आ जाती है। बीमारी तो दवाई खाने से भाग जायेगी, लेकिन ध्यान रखना कि दो दिन बाद फिर से आपको वही बीमारी पकड लेगी। कारण है कमजोरी। कमजोर शरीर पर बीमारी बहुत जल्दी आश्रय पाती है।
तो जी, यही अपना मूल है। मैं बुखार के पहले दौरे में कभी भी डॉक्टर के पास नहीं जाता हूं, बीमारी ऐसे ही चली जाती है। उसके बाद ना चाहते हुए भी खूब खाता हूं, ताकत आ जाती है। फिर एक दो दिन परहेज भी कर लेता हूं। हां, अगर कभी बीमारी का दूसरा झटका लग जाता है तो डॉक्टर के पास जाना पडता है। यह मेरे लिये बुखार का दूसरा झटका था। पहला झटका चार दिन पहले ओडिशा में लगा था।
खैर, सिद्ध हो गया कि बुखार नहीं है, कमजोरी है। खाने पीने पर ध्यान देंगे तो यह भी दूर हो जायेगी।
राजकोट से नियत समय पर ओखा के लिये चल दिये। पैसेंजर ट्रेन थी। भारत परिक्रमा में यह मेरी दूसरी पैसेंजर ट्रेन यात्रा है- पहली असोम में की थी जब भारत का सबसे पूर्वी स्टेशन लीडो देखा था, अब फिर से पैसेंजर में जा चढा हूं और भारत का सबसे पश्चिमी स्टेशन देखूंगा।
गुजरात के ग्रामीण इलाकों को देखने का यह मेरा पहला मौका है। यहां रेगिस्तान का काफी असर है। जितना पश्चिम की ओर बढते जा रहे हैं, यह असर भी उतना ही बढता जा रहा है। रेगिस्तान तो मुख्यतः पश्चिमी राजस्थान में है लेकिन यह पश्चिमी गुजरात में भी काफी बडे दायरे में फैला है; खासकर कच्छ और सौराष्ट्र में। जामनगर तक खेती भी अच्छी दिखाई पडी, उसके बाद सबकुछ बंजर।
अपने एक मित्र हैं उमेश जोशी जो जामनगर के रहने वाले हैं। मेरे यात्रा पर निकलने से महीने भर पहले ही उनका फरमान आ गया था कि तुम दो घण्टे से ज्यादा समय जामनगर में रहोगे, खाना हमारे घर पर ही खाना पडेगा। बीच-बीच में भी वे याद दिलाते रहते थे कि गुजराती थाली आपके इंतजार में है। मैं भी अक्सर ऐसे मौके नहीं छोडता हूं। लेकिन एक-दो बार कुछ ऐसा हुआ कि इन निमंत्रणों से डर लगने लगा है।
मुझे एक बार बरेली से हल्द्वानी जाना था। उन्हीं दिनों एक मित्र का फोन आया कि तुम बरेली से हल्द्वानी जाओगे तो रास्ते में कनमन गांव है। उस गांव में हमारे यहां रुकना। मैंने हामी भर दी। भोजीपुरा में ट्रेन से उतरकर जीप के पीछे लटककर मैं उस कनमन की तरफ चल पडा। अंधेरा हो ही चुका था। हुक्म आया कि उस गांव से कुछ सौ मीटर पहले एक पेट्रोल पम्प है, उसपर उतरकर फोन कर देना, मैं लेने आ जाऊंगा। मैंने जीपवाले से कहा कि उस गांव से पहले वाले पेट्रोल पम्प पर उतार देना। जीप वाले ने मेरी तरफ हैरत भरी निगाहों से देखा, फिर बोला कि वो पम्प नया बना है, अभी चालू भी नहीं हुआ है, उसके आसपास से किसी दूसरे गांव के लिये रास्ता भी नहीं जाता है, तुम बाहर के आदमी हो, यह इलाका भी खतरनाक है, रात हो चुकी है, सावधान रहना। उसकी यह बात सुनते ही मैं सकते में आ गया। एक बार तो सोचा कि छोड पम्प-वम्प, हल्द्वानी चल। लेकिन आखिरकार जीपवाले के अनुसार पम्प के सामने मैं उतर गया।
घुप्प अंधेरा, सडक पर भी दूर-दूर तक कोई वाहन नहीं। इधर-उधर देखा तो कोई पेट्रोल पम्प भी नहीं दिखा। मैं डर गया कि अगर मोबाइल निकालकर फोन करूं तो कुछ गडबड ना हो जाये। आखिरकार दोस्त को फोन कर ही दिया। थोडी ही देर में कुछ दूर से टॉर्च जलती दिखाई पडी। दोस्त मिलने आ गया था। मैंने पूछा कि भाई, यह बता कि पेट्रोल पम्प कहां है? बोला कि तुम पेट्रोल पम्प के अहाते में ही तो खडे हो। यह नया बना है, अभी तक मशीनें नहीं आई हैं, इसलिये यह पम्प जैसा नहीं लग रहा है। मैंने कहा कि जल्दी से घर चलो, आराम करना है। बोला कि आप घर में ही हो। मैं इस पेट्रोल पम्प का मैनेजर हूं। मेरे साथ दो जने और भी यहीं रहते हैं। पता चला कि वो महाराज पूर्वी उत्तर प्रदेश में कहीं के रहने वाले थे। पिछवाडे में एक छोटा सा कमरा और भी था, जिसे वे रसोई के रूप में इस्तेमाल करते थे। बाकी दोनों ने खाना बनाया। स्वादिष्ट बना था। एक अलग कमरे में मेरा बिस्तर लगा दिया गया। जब तक जगा रहा, डर सा तो लगा ही रहा। खैर, रातभर अच्छी नींद आई। सुबह सही-सलामत उठा तो जान में जान आई।
तब से किसी दोस्त के बुलावे पर जाने में डर लगने लगा है। मेरे दोस्त जाने-पहचाने नहीं होते, सभी अनजान होते हैं। दोस्त वे होते हैं, जो मुझे मेरे ब्लॉग से जानते हैं।
तो यहां जामनगर जाने से पहले फोन पर मैंने जोशी जी के बारे में, उनके घर-परिवार के बारे में जानकारी ले ली थी। जब अच्छी तरह यकीन हो गया कि इनका घर-परिवार सबकुछ जामनगर में ही है तब मैंने उनके यहां जाने का निश्चय किया। नहीं तो किसी से मिलने का वादा करके ना मिलना मैं अच्छी तरह जानता हूं।
आज इसी ट्रेन से ओखा जाना है, यही ट्रेन कुछ देर बाद ही ओखा से वापस चल देगी। फिर मुझे हापा उतरकर अहमदाबाद के लिये दूसरी ट्रेन पकडनी है। यहीं हापा में ढाई घण्टे का मेरा ठहराव है। इसी दौरान मुझे जोशी जी के यहां भी जाना है।
लेकिन जोशी जी ओखा जाते समय ही हापा स्टेशन पर मिल गये। हाल-चाल की पूछा-पाछी हुई, साथ ही मुझे कुछ केले आदि मिले। जामनगर के बाद मेरा नीचे बैठने का मन नहीं हुआ और मैं ऊपर खाली पडी एक सीट पर जाकर सो गया। पैसेंजर ट्रेन थी, ज्यादा भीड नहीं थी इसलिये लेटने की जगह मिल गई। कमजोरी की वजह से ना तो कुछ खाने का मन था, ना ही उठने-बैठने का। द्वारका पहुंचकर एक ने उठाया कि भाई, कहां जाओगे? मैंने बताया कि ओखा। असल में द्वारका में ट्रेन लगभग खाली हो जाती है, तो उसने सोचा कि जाटराम भी यहीं उतरता होगा।
ओखा- गुजरात के सौराष्ट्र क्षेत्र में बिल्कुल सुदूर में कोने में स्थित स्टेशन। ओखा को मछुआरों का गांव भी कहा जाता है। घूमने-घामने के लिये इतना कुछ नहीं है। वैसे भी तबियत ठीक नहीं थी, अगर देखने लायक कोई जगह होती, तब भी नहीं जाता। यहां से वापस हापा का टिकट लिया और आपातकालीन खिडकी वाली एक सीट ढूंढकर बैठ गया।
यहां यह देखकर मुझे ताज्जुब हुआ कि हिन्दी बहुत बोली जा रही है। टिकट देने वाला क्लर्क अक्सर लोकल ही होता है। एक ही टिकट खिडकी और दो लाइनें- एक पुरुषों की और दूसरी महिलाओं की। महिलाओं में ज्यादातर गुजराती ग्रामीण बुढियाएं। मैं इन बुढियाओं से किसी भी हालत में हिन्दी की उम्मीद नहीं कर सकता था। धक्कामुक्की मची हुई, शोरशराबा भी और सबकुछ हिन्दी में। कोस-कोस पर बदले बानी- मुझे यहां सुदूर में उस गुजराती की उम्मीद भी नहीं थी, जो अहमदाबाद के आसपास बोली जाती है, जिसे मैं पिछले चौबीस घण्टों से सुनता आ रहा था। ऐसे में हिन्दी सुनना एक आश्चर्यजनक बात थी।
ट्रेन चल पडी। मेरे आसपास सभी लडके ही बैठे थे- सभी एक साथ थे और खूब शोर-शराबा भी कर रहे थे। गुजराती में बातें कर रहे थे। एक ने मुझसे भी गुजराती में पूछा कि कहां जाओगे। मैंने कहा कि गुजराती नहीं जानता, हिन्दी में पूछो। मैं अक्सर इस तरह के लडकों के सामने अपना कैमरा नहीं निकालता। और अगर वे लडके किसी कॉलेज के हों, तो उनके बीच में खडा तक नहीं होता। कॉलेज के लडकों का ग्रुप बडा खतरनाक होता है। ट्रेनों में ये डेली पैसेंजर होते हैं और मारपीट, गाली-गलौच इनके लिये साधारण सी बात होती है। मैंने इन्हें भी कॉलेज के लडके समझा। हालांकि वे कपडों से कॉलेज स्टुडेंट नहीं लग रहे थे।
मैंने झिझकते हुए पूछ ही लिया कि कहां जाओगे तो पता चला कि वे भावनगर जायेंगे। भावनगर यानी कल सुबह तक पहुंचेंगे। यहां कुछ काम-धाम करते हैं, अपने घर जा रहे हैं। बडा सुकून मिला कि यह कॉलेज गैंग नहीं है, खतरनाक गैंग नहीं है, कोई खतरा या डरने वाली बात नहीं है। आराम से कैमरा निकाला और बेधडक फोटो खींचने लगा।
हां, अब एक जरूरी बात। इस यात्रा में पहले ओखा की बजाय भुज जाने का इरादा था लेकिन ओखा इसलिये आया क्योंकि मुझे भारत का सबसे पश्चिमी स्टेशन देखना था। हालांकि सबसे पश्चिमी स्टेशन तो भुज से आगे नलिया है लेकिन उसपर सवारी गाडियां नहीं चलतीं, मात्र मिलिट्री की मालगाडियां ही चलती हैं इसलिये नलिया को सबसे पश्चिमी स्टेशन होने का मैं खिताब नहीं दूंगा।
और ओखा भी सबसे पश्चिमी स्टेशन नहीं है।
जामनगर से जब द्वारका जाते हैं तो दिशा मुख्यतः पश्चिम ही रहती है। द्वारका के बाद लाइन धीरे धीरे उत्तर की ओर मुडती है और ओखा पहुंचते पहुंचते पूर्व दिशा में हो जाती है। यानी ओखा और द्वारका के बीच में कोई स्टेशन है जिसे सबसे पश्चिमी का खिताब देना चाहिये। लेकिन वो स्टेशन कौन सा है, इस बात की कहीं भी कोई जानकारी नहीं मिल सकी। मुझे यही खोजना था।
ओखा, मीठापुर, वरवाला और द्वाराका; इन चारों के अक्षांश-देशान्तर मैंने जीपीएस की सहायता से ज्ञात करके एक कागज पर लिख लिये थे। अब वो कागज गुम हो गया है। मीठापुर और वरवाला के बीच में भी एक स्टेशन है, उसके भी लिखे थे। उन सभी देशान्तरों को देखकर आसानी से पता चल गया कि वरवाला सबसे पश्चिमी स्टेशन है- भारत का सबसे पश्चिमी स्टेशन।
द्वारका पहुंचे। यहां महाभीड ट्रेन का इंतजार रही थी। लेकिन ट्रेन में सब खप गये। भारतीय रेल की यही महानता है कि यह जन-जन सी गाडी है, जन-जन को लेकर चलती है।
अपने आसपास कुछ महिलाएं और बच्चे आ बैठे। वे थे रतलाम के रहने वाले और द्वारका माई के दर्शन करने आये थे। ये अब यहां से राजकोट जायेंगे, वहां से दूसरी गाडी पकडकर अहमदाबाद, फिर वडोदरा और फिर रतलाम। मैंने देखा है कि मध्य प्रदेश के आदिवासी लोग पैसेंजर ट्रेनों से ही तीर्थ-यात्रा करते हैं, चाहे कितना भी समय लग जाये। पैसे कम जो लगते हैं।
मुझे याद है कि एक बार मैं ओंकारेश्वर से रतलाम जा रहा था, मीटर गेज की ट्रेन से। उसमें टिमरनी के कुछ परिवार भी बैठे थे जो हजारों किलोमीटर दूर रामदेवरा जा रहे थे। उनकी यात्रा कई दिनों की थी, टिकट पैसेंजर का ही था। मजे की बात यह थी कि एक टिकट 101 रुपये का था- टिमरनी से रामदेवरा तक पैसेंजर ट्रेन का। वे पहले टिमरनी से खण्डवा आये, फिर मीटर गेज की गाडी से रतलाम, फिर बडी गाडी से चित्तौडगढ, फिर मावली, फिर मीटर गेज से मारवाड, फिर बडी गाडी से जोधपुर और आखिर में रामदेवरा।
मध्य प्रदेश के उसी इलाके के कुछ परिवार यहां मिल गये। इनकी यात्रा भी बडी लम्बी होगी। क्योंकि वडोदरा से रतलाम तक पैसेंजर ट्रेनों का थोडा सा पंगा है- दिनभर में सीधी दो ही ट्रेनें हैं, दोनों सुबह ही वडोदरा से निकल जाती हैं। वैसे तो वडोदरा से गोधरा, गोधरा से दाहोद और दाहोद से रतलाम के बीच कई गाडियां हैं लेकिन उनकी टाइमिंग मेल नहीं खाती।
ये लोग बार-बार पूछ रहे हैं कि राजकोट आ गया क्या। किसी भी छोटे से स्टेशन पर ट्रेन रुकती तो ये उतरने को तैयार हो जाते। आखिरकार मैंने कहा कि मैं जामनगर में उतरूंगा। जब मैं उतर जाऊं, उसके दो घण्टे बाद राजकोट आयेगा यानी रात नौ बजे। तब जाकर उन्हें कुछ तसल्ली मिली।
कानालुस जंक्शन से एक लाइन पोरबन्दर चली जाती है।
फोन की बैटरी खत्म थी, उधर जामनगर में जोशी जी प्रतीक्षा कर रहे थे। उम्मीद के मुताबिक वे प्लेटफार्म पर ही मिले। उन्होंने मुझे देख लिया, मैंने उन्हें। उनका घर जामनगर और हापा के बीच में है, बाइक है उनके पास इसलिये रात सवा नौ के आसपास चलने वाली तिरुनेलवेली एक्सप्रेस आराम से पकड लेंगे।
सात बजे भी जामनगर में अच्छा खासा उजाला था। दिल्ली वाले को लग रहा था कि अभी तो पांच ही बजे हैं। लेकिन जिस तरह यहां सूरज देर से निकलता है, तो देर से छिपता भी है।
जोशी जी बडे खुश थे। बोले कि पहले तुम्हें अपना जामनगर दिखाता हूं। स्कूल कालेजों से लेकर पता नहीं क्या-क्या दिखा डाला उन्होंने। बाइक चलाते रहे और बताते रहे। मेरे पास पीछे बैठे बैठे हूं-हूं करने से सिवाय कोई चारा भी नहीं था।
बोले कि जामनगर का पान बडा प्रसिद्ध है। चलो, पान खाते हैं। मैंने तुरन्त अपना तीर चलाया कि भईया, पान नहीं बल्कि किसी मेडिकल स्टोर पर चलो। बोले कि वहां क्या करना है। मैंने कहां कि मूवी देखने का मन है। बोले कि मेडिकल स्टोर पर मूवी?? मैंने बताया कि वहां दवाईयां मिलती हैं, मैं बीमार हूं। बुखार है मुझे दो दिनों से। साथ ही यह भी अनिवार्य रूप से जोडा कि कुछ भी खाने-पीने का मन नहीं है। साथ ही पान खाने से भी मना कर दिया।
मेहमानों का स्वागत पुराने जमाने में पान से किया जाता था। अपना भी स्वागत पान से ही हुआ, भले ही खाया ना हो।
घर पहुंचे। अच्छा हां, जब सुबह जोशी जी मिले थे तो मैंने उनसे पूछा कि तुम करते क्या हो? बोले कि मैं जो कुछ करता हूं, तुम उसके विरोधी हो। मैंने जोर दिया तो बोले कि घर चलेंगे तब पता चल जायेगा। घर पहुंचते ही मैंने यही बात पूछी तो पता चला कि वे भविष्यवक्ता हैं, ज्योतिषी हैं, पण्डिताई भी करते हैं। मुझे परम नास्तिक मानते हैं। हालांकि मैं जानता हूं कि मैं परम नास्तिक नहीं हूं।
खाना खाने का मन नहीं है, यह बात मैंने उनके दिमाग में अच्छी तरह भरने की कोशिश की। होता यह है कि मेजबान चाहता है कि मेहमान आये तो खूब खाये। और यहां तो जोशी जी महीने भर से बाट देख रहे थे। बाजरे के रोटडे, बैंगन का साग, एक सब्जी, खिचडी, सलाद-अचार और सबसे बढिया चीज छाछ। देशी जानवर को परदेस में देशी खाना मिल जाये तो वाहवाही बनती है। हालांकि कल के बुखार की वजह से जीभ की स्वाद ग्रंथियों की सक्रियता कम हो गई थी, जिसके कारण हर चीज स्वादहीन लग रही थी लेकिन फिर भी मैं अपनी औकात से ज्यादा खा गया। मुझे खाना खाते समय दो बार डकार आती है। पहली डकार का मतलब होता है कि आधा पेट भर गया और दूसरी का मतलब है कि फुल स्टॉप। दोनों डकारें आकर चली गईं, तब जाकर मैंने खाना खाना बन्द किया। इसके बाद जैसा कि हमेशा होता है कि मना करने के बावजूद आधा रोटडा फिर परोस दिया। यह आधा रोटडा जूठी प्लेट में ही छोड देना पडा जो कि मुझे बिल्कुल पसन्द नहीं है। इसका जिम्मेदार मेजबान है।
हमेशा यही होता है कि मेहमान का पेट भर जाने पर भी, उसके बार बार मना करने पर भी जबरदस्ती उसके सामने खाना परोस दिया जाता है कि खाओ। मैं चाहता हूं कि अगर मेहमान ने बोल दिया कि बस, अब और नहीं तो उसके सामने से ना केवल खाना, बल्कि प्लेटें भी उठा ली जाये। जबरदस्ती खाने को कहने से कई नुकसान है। नम्बर एक, अगले का और खाना खाने का मन नहीं है, जबरदस्ती खिलाओगे तो वो बीमार भी पड सकता है। नम्बर दो, ना चाहते हुए भी खाने का मतलब है कि भोजन का अपमान हो रहा है। कोई खाने से मना कर रहा है तो उसके तीन मतलब हो सकते हैं कि या तो खाना स्वादिष्ट नहीं बना है या फिर पेट भर गया है या फिर संकोच की वजह से नहीं खा पा रहा है। अगर मेहमान संकोच की वजह से खाना नहीं खा रहा है तो इसका नुकसान खुद उसे ही होता है।
मैंने अपने घर पर यही नियम बना रखा है कि अगर मेहमान खाने से मना करता है तो उसके सामने से प्लेटें उठा लेते हैं। मैं भी यही चाहता हूं कि अगर मैं मना करूं तो प्लेटें उठा ली जायें। मैं हमेशा भरपेट खाने के बाद ही मना करता हूं।
जोशी जी ने अपने घर के सबसे निचले हिस्से में मन्दिर बना रखा है, ऊपर खुद रहते हैं। पण्डिताई करते हैं और भविष्यवचन भी करते हैं। पूछने लगे कि जाटराम ये बताओ कि तुम शादी कब कर रहे हो? मैंने कहा कि पण्डित जी, तुम ही बताओ। हालांकि उन्होंने बताया नहीं। शायद दक्षिणा की उम्मीद नहीं थी।
खैर, ठीक समय पर हापा स्टेशन पहुंच गये। अपनी ट्रेन इंतजार कर रही थी। इस ट्रेन की शर्त यह है कि इसमें हापा से अहमदाबाद तक का आरक्षण नहीं करा सकते, कम से कम वडोदरा तक का कराना होता है। मैंने भी वडोदरा तक का आरक्षण कराया और तडके तडक साढे तीन बजे अहमदाबाद उतर गया।

राजकोट स्टेशन

खंढेरी स्टेशन


जामनगर स्टेशन

कानालुस जंक्शन- यहां से एक लाइन पोरबन्दर जाती है।


खम्भालिया स्टेशन

कुरंगा स्टेशन

ओखामढी स्टेशन

द्वारका- देश के चार धामों में से एक

द्वारका स्टेशन


वरवाला- भारत का सबसे पश्चिमी रेलवे स्टेशन

मीठापुर

ओखा रेलवे स्टेशन

ओखा के पास समुद्र

क्रिकेट

यहां हवाएं बडी तेज चलती हैं जो पवनचक्कियों के अनुकूल हैं।


मध्य प्रदेश के श्रद्धालु




पश्चिमी सौराष्ट्र का ऐसा ही भूगोल है।





भावनगर वाले दो बन्दे

पं. उमेश जोशी अपने घर में बने मन्दिर में

रात के समय हापा रेलवे स्टेशन


अगला भाग: भारत परिक्रमा- बारहवां दिन- गुजरात और राजस्थान

ट्रेन से भारत परिक्रमा यात्रा
1. भारत परिक्रमा- पहला दिन
2. भारत परिक्रमा- दूसरा दिन- दिल्ली से प्रस्थान
3. भारत परिक्रमा- तीसरा दिन- पश्चिमी बंगाल और असोम
4. भारत परिक्रमा- लीडो- भारत का सबसे पूर्वी स्टेशन
5. भारत परिक्रमा- पांचवां दिन- असोम व नागालैण्ड
6. भारत परिक्रमा- छठा दिन- पश्चिमी बंगाल व ओडिशा
7. भारत परिक्रमा- सातवां दिन- आन्ध्र प्रदेश व तमिलनाडु
8. भारत परिक्रमा- आठवां दिन- कन्याकुमारी
9. भारत परिक्रमा- नौवां दिन- केरल व कर्नाटक
10. भारत परिक्रमा- दसवां दिन- बोरीवली नेशनल पार्क
11. भारत परिक्रमा- ग्यारहवां दिन- गुजरात
12. भारत परिक्रमा- बारहवां दिन- गुजरात और राजस्थान
13. भारत परिक्रमा- तेरहवां दिन- पंजाब व जम्मू कश्मीर
14. भारत परिक्रमा- आखिरी दिन

Comments

  1. लाजवाब पोट्रेट्स.

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  2. नीरजभाइ , बहुत घुमने के साथ बहुत भाषण भी देना जानते हो । 1 तो प्यार से खाना खीलाया और भाषण , आप आये बहुत अच्छा लगा ।

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  3. बहुत आनन्द आ रहा है पढ़ने में... देसी जानवर वाला वाक्य खूब हंसा गया

    बहुत लक्की हो भाई...हमारी जवानी तो पढ़ने, बाप से पिटने और नौकरी ढूंढने में ही निकल गयी... आपकी यात्रा से लग रहा है मै ही यात्रा कर रहा हूं

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    Replies
    1. नीरज जी
      बहुत अच्छा यात्रा वर्णन है.

      शिवम् जी,
      जब हम बच्चे थे, तो पिता जी की आज्ञा पालन करते थे, अब बच्चों की मर्जी पर चल रहे हैं. हमारा जमाना कब आयेगा, जब हमारी कमांड चलेगी.

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  4. बुखार से निपटने का तरीका सहेजकर लिये जा रहे हैं, गुजरात का भूगोल बिना अधिक पानी के भी समृद्ध है।

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  5. सोमनाथ बाबा किसी को आमन्त्रित करने में बडा उस्ताद है। अपनी इसी आदत के चक्कर में हजार साल पहले गलत लोगों को आमन्त्रित कर बैठा और सत्रह बार लुटा। वाह जी वाह सोमनाथ! - मैं तो हसे बिना नहीं रहा - बढ़िया लिखते हैं आप। शुभकामनाएं।

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46 रेलवे स्टेशन हैं दिल्ली में

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इन पुस्तकों का परिचय यह है कि इन्हें जिम कार्बेट ने लिखा है। और जिम कार्बेट का परिचय देने की अक्ल मुझमें नहीं। उनकी तारीफ करने में मैं असमर्थ हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि उनकी तारीफ करने में कहीं कोई भूल-चूक न हो जाए। जो भी शब्द उनके लिये प्रयुक्त करूंगा, वे अपर्याप्त होंगे। बस, यह समझ लीजिए कि लिखते समय वे आपके सामने अपना कलेजा निकालकर रख देते हैं। आप उनका लेखन नहीं, सीधे हृदय पढ़ते हैं। लेखन में तो भूल-चूक हो जाती है, हृदय में कोई भूल-चूक नहीं हो सकती। आप उनकी किताबें पढ़िए। कोई भी किताब। वे बचपन से ही जंगलों में रहे हैं। आदमी से ज्यादा जानवरों को जानते थे। उनकी भाषा-बोली समझते थे। कोई जानवर या पक्षी बोल रहा है तो क्या कह रहा है, चल रहा है तो क्या कह रहा है; वे सब समझते थे। वे नरभक्षी तेंदुए से आतंकित जंगल में खुले में एक पेड़ के नीचे सो जाते थे, क्योंकि उन्हें पता था कि इस पेड़ पर लंगूर हैं और जब तक लंगूर चुप रहेंगे, इसका अर्थ होगा कि तेंदुआ आसपास कहीं नहीं है। कभी वे जंगल में भैंसों के एक खुले बाड़े में भैंसों के बीच में ही सो जाते, कि अगर नरभक्षी आएगा तो भैंसे अपने-आप जगा देंगी।

ट्रेन में बाइक कैसे बुक करें?

अक्सर हमें ट्रेनों में बाइक की बुकिंग करने की आवश्यकता पड़ती है। इस बार मुझे भी पड़ी तो कुछ जानकारियाँ इंटरनेट के माध्यम से जुटायीं। पता चला कि टंकी एकदम खाली होनी चाहिये और बाइक पैक होनी चाहिये - अंग्रेजी में ‘गनी बैग’ कहते हैं और हिंदी में टाट। तो तमाम तरह की परेशानियों के बाद आज आख़िरकार मैं भी अपनी बाइक ट्रेन में बुक करने में सफल रहा। अपना अनुभव और जानकारी आपको भी शेयर कर रहा हूँ। हमारे सामने मुख्य परेशानी यही होती है कि हमें चीजों की जानकारी नहीं होती। ट्रेनों में दो तरह से बाइक बुक की जा सकती है: लगेज के तौर पर और पार्सल के तौर पर। पहले बात करते हैं लगेज के तौर पर बाइक बुक करने का क्या प्रोसीजर है। इसमें आपके पास ट्रेन का आरक्षित टिकट होना चाहिये। यदि आपने रेलवे काउंटर से टिकट लिया है, तब तो वेटिंग टिकट भी चल जायेगा। और अगर आपके पास ऑनलाइन टिकट है, तब या तो कन्फर्म टिकट होना चाहिये या आर.ए.सी.। यानी जब आप स्वयं यात्रा कर रहे हों, और बाइक भी उसी ट्रेन में ले जाना चाहते हों, तो आरक्षित टिकट तो होना ही चाहिये। इसके अलावा बाइक की आर.सी. व आपका कोई पहचान-पत्र भी ज़रूरी है। मतलब